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विश्व में बालश्रम का निकृष्टतम रूप
1. बंधुआ और बलात बालश्रम में 5.7 मिलियन बच्चे हैं।
2. 1.8 मिलियन बच्चे देह-व्यापार या अश्लील चित्रण में हैं।
3. अवैध खरीद-फरोख्त में 1.2 मिलियन बच्चे लगे हैं।
4. 0.6 मिलियन बच्चे कई तरह के अवैध कार्यो में रत हैं।
5. सशस्त्र संघर्ष में भी 0.3 मिलियन बच्चों को शामिल किया गया है।
(स्त्रोत : अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन (आईएलओ) 2002)
छोटू बडे खुश नजर आ रहे हो?
आज चाचा नेहरू का जन्मदिन है न!
लेकिन तुम क्यों खुश हो?
क्योंकि चाचा नेहरू बच्चों से बहुत प्यार करते थे। कलाम जी (पूर्व राष्ट्रपति)भी तो प्यार करते हैं न हमसे?
हां, करते तो हैं..। फिर भी, खुशी का राज क्या है छोटू?
जी बस ऐसे ही, आज अंकल ने छुट्टी दी है। हम शाहरुख खान की फिल्म देखेंगे शाम को..। तीन-चार वर्ष पूर्व का वाकया है यह। चाय के ढाबे पर काम करने वाला छोटू साफ-सुथरे कपडे पहने कुछ गुनगुनाता हुआ सबको चाय पिला रहा था। ढाबा मालिक ने उसे आधे दिन की छुट्टी दे दी थी। सुबह से देर रात गए तक की व्यस्त दिनचर्या में यह छोटा सा अवकाश कितना महत्वपूर्ण होता है, यह कोई छोटू से पूछे, जिसे बारह-चौदह घंटे काम करने के एवज में उस वक्त छह सौ रुपये मिलते थे। वह तीन छोटे भाई-बहनों का पालन-पोषण कर रहा था। मां थी नहीं, पिता कहीं मजदूरी करके चार बच्चों को नहीं पाल सकते थे।
क्या ऐसे कई छोटू आपको अपने आसपास नजर नहीं आते? अलस्सुबह बस स्टॉप और रेलवे स्टेशनों पर नन्हे हाथों में चाय की केतली और कुल्हड संभाले चाय गरम चाय की हांक लगाते, रेड लाइट पर गाडियों के रुकते ही किताबें लेकर दौडे आते, पांच सौ रुपये मूल्य की पाइरेटेड किताब मोलभाव कर दो सौ या डेढ सौ में देने को तैयार छोटू, जिनके नन्हे हाथों में पामुक से लेकर डेन ब्राउन, विक्रम सेठ, अरुंधति राय, शिव खेडा, दीपक चोपडा से लेकर शोभा डे तक की किताबें हैं। यह अलग बात है कि खुद वे ए, बी, सी, डी नहीं जानते। धूल, धूप, बरसात से बचते ये नन्हे-मुन्ने खडे हैं कि कोई किताबें खरीद ले तो उन्हें खाना मिले।
कुछ और छोटू बैठे हैं सडकों के किनारे। मैले-कुचैले, सिर से पांव तक कालिमा में लिथडे जूता पॉलिश करते, पंक्चर जोडते, कूडा बीनते और खुद कूडे के ढेर में तब्दील होते, अपने ही हमउम्र बच्चों को गुब्बारे और अन्य खिलौने बेचते, मदारी के खेल में जमूरा बनते-करतब दिखाते, पान मसाला बेचते, घरों से लेकर खेतों-खलिहानों, फैक्ट्री में काम करते..।
नन्हे-मुन्ने बच्चे तेरी मुट्ठी में क्या है, मुट्ठी में है तकदीर हमारी, हमने किस्मत को वश में किया है..। कूडा बीनते इन हाथों में सफल चित्रकार बनने की कूवत है, किताबें बेचते बच्चों में लेखकबनने की। मिट्ठी ढोते, बर्तन धोते बच्चों में शायद कोई कलाकार, वैज्ञानिक, इंजीनियर, डॉक्टर छिपा हुआ है, लेकिन हमारे आसपास असंख्य छोटू, रामू और बहादुरों के हाथों की लकीरें बनने से पहले ही कट जा रही हैं।
मशहूर शायर निदा फाजली साहब का एक शेर है-बच्चों के छोटे हाथों को चांद-सितारे छूने दो, चार किताबें पढ कर वो भी हम जैसे बन जाएंगे..।
लेकिन यहां तो बच्चे न चांद-सितारे छू पा रहे हैं और न किताबें पढ पा रहे हैं। खेलने-कूदने ज्ञान अर्जन करने की उम्र में उन्हें सिर्फ पेट भरने के लिए काम करना पड रहा है।
हम बात कर रहे हैं बाल श्रमिकों की, जिनकी नन्ही उंगलियों में वो कमाल है कि जहां छू दें-जादू जगा दें, पत्थर की ठीकरी से संगीत पैदा कर दें। लेकिन यह हुनर सिर्फ पेट भरने के काम आए तो आजाद देश के लिए इससे शर्मनाक बात और कोई नहीं हो सकती।
क्या है बालश्रम
जनगणना 2001 के आंकडों के मुताबिक भारत में लगभग एक करोड बीस लाख बच्चे बाल श्रमिक थे। तब से आज तक स्थितियां और बदतर हुई हैं। हर बालक का मौलिक अधिकार है कि समाज उसे उत्तम सुविधाएं दे। बच्चों की शिक्षा की उपेक्षा करके उन्हें ऐसा काम दिया जाए, जो उनके लिए जोखिम बन जाए, उनके मानसिक, शारीरिक, भावनात्मक स्वास्थ्य पर कुप्रभाव डाले तो वह बालश्रम है।
अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन (आईएलओ) 1983 के अनुसार, खेलकूद की अवस्था में बच्चों से वयस्कों जैसे कार्य कराना, कम मजदूरी के लिए लंबे समय तक ऐसे कार्य कराना जिनसे उनके शारीरिक, मानसिक स्वास्थ्य को क्षति पहुंचे, शिक्षा और जीवन की कीमत पर काम कराना, परिवार से दूर रखना, उन अवसरों से दूर करना, जिनसे उन्हें बेहतर भविष्य मिल सकता था, बालश्रम है।
भारत में वर्ष 1981 में कारखाना अधिनियम बना। 1986 में बालश्रम निषेध अधिनियम बनाया गया। भारतीय संविधान के अनुच्छेद 24 के अनुसार, 14 वर्ष से कम आयु का व्यक्ति बालक है। संयुक्त राष्ट्र के बाल अधिकार समझौते के अनुसार 18 वर्ष से कम आयु का कोई भी व्यक्ति बालक है।
भारतीय संविधान के अनुच्छेद 21 के अनुसार, राज्य 6 से 14 वर्ष तक की आयु वाले सभी बालकों को नि:शुल्क और अनिवार्य शिक्षा का प्रबंध करेगा। अनुच्छेद 23 क कहता है, बेगार या बलात श्रम निषिद्ध होगा।
कारण और किस्में
बालश्रम के आर्थिक कारणों में परिवारों की कमजोर स्थिति, संसाधनों का अभाव, वयस्क बेरोजगारी, बडा परिवार, बुनियादी जरूरतों का पूरा न होना जैसी बातें आती हैं। सामाजिक कारणों में माता-पिता की निरक्षरता, उन्हें बाल मजदूरी के कुप्रभावों की जानकारी न होना, प्राथमिक शिक्षा का अभाव, स्कूल न होना, सामाजिक उदासीनता, संवेदनहीनता, जाति प्रथा जैसी बातें आती हैं। सांस्कृतिक कारणों में पीढी दर पीढी चलने वाले पेशे (सपेरे, मदारी, जादूगर, कठपुतली), लडकियों के प्रति पक्षपातपूर्ण रवैये, बालश्रम के कठोर परिणामों के बारे में माता-पिता को जानकारी न होने जैसी बातें रखी जा सकती हैं।
बालश्रम की कई किस्में हैं, जिसमें सबसे प्रमुख है बंधुआ बाल मजदूर। ये वे बच्चे हैं, जिनके माता-पिता जमींदारों या सेठों के ऋण नहीं चुका पाते और बदले में बच्चों को बंधक रख देते हैं। ब्याज दर इतनी ऊंची होती है कि उसे चुकाने में पीढियों की बलि चढ जाती है। दूसरी किस्म प्रवासी मजदूरों की है, जो रोजगार की तलाश में माता-पिता के साथ गांव छोड कर शहरों में रहने लगते हैं। कुछ बच्चे फुटपाथ, रेलवे स्टेशनों, बस स्टेशनों पर रहने को मजबूर होते हैं। ये घर से भागे या माता-पिता द्वारा छोडे गए होते हैं। ये बच्चे सर्वाधिक शोषित हैं।
बालश्रम का नया रूप
पिछले दिनों महिला एवं बाल विकास मंत्री रेणुका चौधरी ने कहा है कि रिअॅलिटी शोज में काम करने वाले बच्चे भी बाल श्रमिक हैं, क्योंकि ये भी कई घंटे कार्य करके अर्थोपार्जन कर रहे हैं। इनकी कार्य-स्थितियां स्पष्ट नहीं है। बालश्रम की परंपरागत अवधारणा में यह एक नया आयाम है, क्योंकि टीवी कार्यक्रमों में आने वाले बच्चे गरीब परिवारों के नहीं होते।
मंत्रालय ने बाल अधिकार संरक्षण के लिए गठित राष्ट्रीय आयोग (एनसीपीसीआर) को एक पांच सदस्यीय समिति बनाने को कहा, जो ऐसे कार्यक्रमों में भागीदारी करने वाले बच्चों की कार्य- परिस्थितियों की जांच करे।
एक रिअॅलिटी शो में हार की खबर से आहत लडकी पक्षाघात की शिकार हुई। इसके बाद इन कार्यक्रमों को लेकर बहसें शुरू हुई।
व्यावहारिक धरातल पर देखें तो बालश्रम व्यापक पैमाने पर फैला है। सरकारी-गैर सरकारी प्रयासों के बावजूद यह जारी है। आइए जानें इस संवेदनशील मसले पर कुछ प्रमुख लोगों और मशहूर हस्तियों के विचार।
बालश्रम और भ्रामक धारणाएं
1. बाल मजदूरी का कारण गरीबी है यह कहते हुए समस्या से मुंह मोडने की कोशिश की जाती है। कम आमदनी, निम्न कौशल स्तर, शिक्षा-प्रशिक्षण की कमी, कुपोषण, खाद्य समस्याओं के कारण गरीबी जन्म लेती है। बुनियादी सुविधाएं देकर गरीबी को खत्म किया जा सकता है।
2. बच्चे काम नहीं करेंगे तो भूखे मरेंगे परिवार तो तब भी भुखमरी के शिकार हो रहे हैं, जब घर के सारे सदस्य काम कर रहे हैं। भुखमरी का कारण है, मूल्य नीति, कम आय, कम क्रयशक्ति, आय-असमानता, असमान खाद्य वितरण, भूमि स्वामित्व की असमानता।
3. बडा परिवार होना भी है कारण इसे एक छोटी वजह माना जा सकता है, लेकिन मूल वजह है कि परिवारों की बुनियादी जरूरतें पूरी नहीं हो रही हैं। शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार जैसे मौलिक अधिकार भी लोगों को आसानी से मुहैया नहीं हैं।
4. बच्चों के हित में है काम करना यह बात पूरी तरह खारिज की जानी चाहिए कि बच्चों को काम देकर उनकी स्थिति सुधारी जा सकती है।वस्तुस्थिति यह है कि बच्चों को कम पैसे में ज्यादा घंटे काम कराया जा सकता है। ये सबसे सस्ते मजदूर हैं।
5. काम से बच्चों का कौशल बढता है ज्ञान के लिए काम सीखने और जीने के लिए काम करने में बडा फर्क है। सच यह है कि कठोर परिश्रम, ऑक्सीजन न मिलने, जहरीले रसायनों केसंपर्क में रहने से बच्चों का मानसिक-शारीरिक स्वास्थ्य अवरुद्ध होता है।
6. बालश्रम खत्म नहीं हो सकता यह काम कठिन जरूर है लेकिन यदि हमारे पास प्रभावकारी व्यवस्था और प्रशासनिक तंत्र हो, दृढ इच्छाशक्ति हो और समाज का हर व्यक्ति अपने स्तर पर कुछ करने की इच्छा रखे तो बालश्रम का उन्मूलन संभव है।
कैद में है जिनका बचपन
#सुलेखा सिंह (सामाजिक कार्यकर्ता)
दिल्ली छत्तीसगढ के रायपुर शहर में थे हम। शॉपिंग कॉम्प्लेक्स के भूतल में कालीन का कारखाना था, जिसका रास्ता इतना गुप्त था कि वहां पहुंचना मुश्किल था। वहां पहुंचते ही आंखें धुंधलाने लगीं, दम घुटने लगा और खांसते-खांसते गला भर आया। दम साधे बडे से हॉल में पहुंचे तो एकबार यकीन करना मुश्किल हो गया कि वहां इतने छोटे बच्चे काम कर रहे थे, जो शायद ही ठीक से खाना खा पाते हों। ये नन्हे बुनकर कितनी नफासत से काम करते हैं, यह कारखाना मालिकों केइस वाक्य से जाहिर होता है कि जितना छोटा बच्चा होगा, उतनी ही सुंदर बुनाई होगी। इन बच्चों की उंगलियां नाजुक व पतली होती हैं, जिनसे धागों की बुनावट में दोहराव नहीं आता। उंगलियां जख्मी होकर सूज जाती हैं, लेकिन काम नहीं रुकता। जो बच्चे माता-पिता के साथ मिल कर काम करते हैं, उन्हें प्रति कालीन 100 रुपये मिलते हैं। लगभग सभी को खांसी, दमा, सांस की बीमारी है।
काम के ही सिलसिले में बीडी मजदूरों से भी मिले हम। यह एक स्लम एरिया था। हवा में दूर तक तंबाकू की बासी गंध फैली थी। हर घर के आंगन व छतों में तंबाकू की पत्तियां जा रही थीं। एक घर में देखा कि तंबाकू को बच्चे रगड-रगड कर साफ कर रहे थे। बडे-बुजुर्ग काम पर गए थे। हमें बताया गया कि तंबाकू के पत्ते सुखाना, तोडना, पीटना, साफ करना, बीडी बनाने वाले पत्ते साफ करना, उसमें तंबाकू भर कर बीडी मोडना और फिर पतले धागे से बांधना, छोटे बंडलों को बडे बंडल में पैक करना जैसे सभी काम बच्चों के जिम्मे हैं। इन्हें 150 बंडल बीडी बनाने पर 70 रुपये मजदूरी मिलती है। यदि बीडी दब गई, अच्छी नहीं बंधी, चिटक गई तो बेकार! हर घर में तपेदिक, दमा, सांस की बीमारियां फैली हैं। इन बच्चों को भी पढने-खेलने का शौक है, लेकिन जिंदगी शायद इससे भी बडी है।

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